वांछित मन्त्र चुनें

इन्द्र॑स्य रू॒पमृ॑ष॒भो बला॑य॒ कर्णा॑भ्या॒ श्रोत्र॑म॒मृतं॒ ग्रहा॑भ्याम्। यवा॒ न ब॒र्हिर्भ्रु॒वि केस॑राणि क॒र्कन्धु॑ जज्ञे॒ मधु॑ सार॒घं मुखा॑त् ॥९१ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्र॑स्य। रू॒पम्। ऋ॒ष॒भः। बला॑य। कर्णा॑भ्याम्। श्रोत्र॑म्। अ॒मृत॑म्। ग्रहा॑भ्याम्। यवाः॑। न। ब॒र्हिः। भ्रु॒वि। केस॑राणि। क॒र्कन्धु॑। ज॒ज्ञे॒। मधु॑। सा॒र॒घम्। मुखा॑त् ॥९१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:19» मन्त्र:91


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (ग्रहाभ्याम्) जिनसे ग्रहण करते हैं, उन व्यवहारों के साथ (ऋषभः) ज्ञानी पुरुष (बलाय) योग-सामर्थ्य के लिये (यवाः) यवों के (न) समान (कर्णाभ्याम्) कानों से (श्रोत्रम्) शब्दविषय को (अमृतम्) नीरोग जल को और (कर्कन्धु) जिससे कर्म को धारण करें, उसको (सारघम्) एक प्रकार के स्वाद से युक्त (मधु) सहत (बर्हिः) वृद्धिकारक व्यवहार और (भ्रुवि) नेत्र और ललाट के बीच में (केसराणि) विज्ञानों अर्थात् सुषुम्ना में प्राण वायु का निरोध कर ईश्वरविषयक विशेष ज्ञानों को (मुखात्) मुख से उत्पन्न करता है, वैसे वह सब (इन्द्रस्य) परमैश्वर्य्य का (रूपम्) स्वरूप (जज्ञे) उत्पन्न होता है ॥९१ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे निवृत्ति मार्ग में परम योगी योगबल से सब सिद्धियों को प्राप्त होता है, वैसे ही अन्य गृहस्थ लोगों को भी प्रवृत्ति मार्ग में सब ऐश्वर्य्य को प्राप्त होना चाहिये ॥९१ ॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(इन्द्रस्य) परमैश्वर्य्यस्य (रूपम्) स्वरूपम् (ऋषभः) विज्ञानवान् (बलाय) योगसामर्थ्याय (कर्णाभ्याम्) कुर्वन्ति श्रवणं याभ्याम् (श्रोत्रम्) शब्दविषयम् (अमृतम्) अमृतात्मकमुदकम् (ग्रहाभ्याम्) याभ्यां गृह्णीतस्ताभ्याम् (यवाः) धान्यविशेषाः (न) इव (बर्हिः) वर्द्धनम् (भ्रुवि) नेत्रललाटयोर्मध्ये (केसराणि) विज्ञानानि। अत्र कि ज्ञाने इत्यस्मादौणादिकः सरन् प्रत्ययः। (कर्कन्धु) येन कर्म दधाति (जज्ञे) जायते (मधु) विज्ञानम् (सारघम्) यदारघ्यते स्वाद्यते तदारघं समानं च तदारघं त तत् (मुखात्) ॥९१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - यथा ग्रहाभ्यां सहर्षभो बलाय यवा न कर्णाभ्यां श्रोत्रममृतं कर्कन्धु सारघं मधु बर्हिर्भ्रुवि केसराणि मुखाद् जनयति, तथैतत् सर्वमिन्द्रस्य रूपं जज्ञे ॥९१ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा निवृत्तिमार्गे परमयोगी योगबलेन सर्वाः सिद्धीः प्राप्नोति, तथैवान्यैर्गृहस्थैरपि प्रवृत्तिमार्गे सर्वमैश्वर्य्यं प्राप्तव्यमिति ॥९१ ॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे परम योगी निवृत्ती मार्गात योगबलाने सिद्धी प्राप्त करतात, तसेच इतर लोकांनीही प्रवृत्तीमार्गात सर्व ऐश्वर्य प्राप्त करावे.